Mystery of Numerology
जगत् का मूल
जगत् में समाहित विभिन्न वस्तुएं जो हमें अनेक रूप में दिखती हैं के मूल में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्त्व विभिन्न अनुपात और विभिन्न प्रकार से समिश्रित हैं अर्थात् समस्त जगत् केवल पंच-तत्त्वों की माया है। इन सभी तत्त्वों का प्रादुर्भाव आकाश से ही हुआ है। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है।
इसी प्रकार आकाश का गुण शब्द, वायु का स्पर्श, अग्नि का तेज (रूप), जल का रस और पृथ्वी का गन्ध है। अतः संसार के समस्त पदार्थों का मूल गुण ‘शब्द’ है। इसी कारण ‘शब्द-ब्रह्म (ईश्वर)’ का प्रतीक माना गया है। फलतः ईश्वर ही जगत् का मूल है।
अंकों की उत्पत्ति एवं उसका विशिष्ट क्रम
मूल रूप में समस्त शब्द ब्रह्म के रूप ही हैं। प्रत्येक शब्द एकाधिक आवृत्ति के उपरान्त ही पूर्णता को प्राप्त होता है। इसी कारण शब्द और संख्या में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसीलिए जिस प्रकार समस्त पदार्थों के मूल में शब्द है, उसी प्रकार अंक भी समाहित है। शब्द और अंक के मूल को शून्य कहते हैं। शून्य (0) निष्क्रिय, निराकार, निर्विकार ब्रह्म का द्योतक है। शून्य से ही शब्द और अंक का प्रादुर्भाव होता है। शून्य आकाश का ही प्रतिरूप है और आकाश शब्द का जन्मदाता ।
इसीलिए शून्य के द्वारा नौ अंक की उत्पत्ति हुई है जिन्हें हम क्रमशः 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9 के रूप में जानते हैं। सभी अंक क्रमागत आवृत्ति के उपरान्त पुनः शून्य पर आकर समाप्त हो जाते हैं। अतः दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है-‘शून्य आत्मा है और सभी अंक इसके शरीर रूप हैं जो क्रमशः परिवर्तित होकर दूसरा स्वरूप धारण करते हैं और अन्ततः उसी शून्य(आत्मा) में विलीन हो जाते हैं।’ शून्य समस्त अंकों का जन्मदाता होने के कारण साक्षात ईश्वर के रूप में स्मरण किया जाता है।
यदि हम अंकों को क्रम से लिखें तो 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8 और 9 के उपरान्त अंक शून्य (0) पर ही आकर स्थिर होते हैं।